1.76 करोड़ का हर्जाना! दिल्ली हाई कोर्ट का ऐसा झटका सरकार को पहले कभी नहीं लगा, पूरा मामला जानिए!

दिल्ली हाई कोर्ट का एक ऐतिहासिक निर्णय सामने आया है जिसमें कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह एक 23 साल पुराने कानूनी विवाद के चलते याचिकाकर्ताओं को 1.76 करोड़ रुपये का हर्जाना (damages) अदा करे। यह मामला राजधानी के प्रतिष्ठित कस्तूरबा गांधी मार्ग पर स्थित अंसल भवन (Ansal Bhawan) के एक फ्लैट से जुड़ा हुआ है, जहां एक परिवार का जीवन बसाने का सपना कथित तौर पर राज्य की ‘अन्यायपूर्ण कार्रवाई’ के चलते अधूरा रह गया।
23 साल बाद मिला इंसाफ, संविधान की गरिमा को दी गई प्राथमिकता
Delhi High Court के जस्टिस पुरुषेन्द्र कुमार कौरव की एकल पीठ ने यह फैसला सुनाया। कोर्ट ने अपने निर्णय में स्पष्ट शब्दों में कहा कि भले ही संपत्ति का अधिकार अब संविधान के तहत मौलिक अधिकार नहीं है, फिर भी अनुच्छेद 300A के अंतर्गत यह एक मजबूत कानूनी अधिकार बना हुआ है। सरकार इस अधिकार को बिना उचित प्रक्रिया और कानून के नहीं छीन सकती।
कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्य की भूमिका लोगों के अधिकारों की रक्षा करने की होनी चाहिए, ना कि उनका हनन करने की। यदि सरकार ही नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन करे, तो यह संविधान का सीधा अपमान है।
1977 में शुरू हुई थी कानूनी लड़ाई
इस मामले की जड़ें आपातकाल के दौर से जुड़ी हैं। 1977 में एक निरोध आदेश (Detention Order) के आधार पर उक्त फ्लैट को जब्त कर लिया गया था। हालांकि बाद में यह आदेश रद्द कर दिया गया, लेकिन इसके बावजूद 1998 में केंद्र सरकार ने SAFEMA कानून (Smugglers and Foreign Exchange Manipulators Act) के तहत इस संपत्ति को जब्त कर लिया।
वादियों का आरोप है कि उन्हें अवैध रूप से संपत्ति से वंचित किया गया, और इसके साथ-साथ मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से भी परेशान किया गया।
अवैध कब्जे के लिए मेज़न प्रोफिट और हर्जाने की मांग
याचिकाकर्ताओं ने अदालत में दावा किया कि 1999 से 2020 तक की अवधि के दौरान फ्लैट पर सरकार का कब्जा गैरकानूनी था। इस अवधि के लिए उन्होंने मेज़न प्रोफिट (mesne profit), यानी अवैध कब्जे के दौरान मिलने वाला संभावित किराया, बाजार मूल्य में हुए नुकसान और ब्याज की मांग की।
कोर्ट ने इसे न्यायोचित मानते हुए सरकार को आदेश दिया कि वह वादियों को 1.76 करोड़ रुपये का हर्जाना अदा करे। यह फैसला सिर्फ एक वित्तीय राहत नहीं, बल्कि एक संवैधानिक सैद्धांतिक जीत भी है।
अदालत की सरकार को तीखी फटकार
दिल्ली हाई कोर्ट ने फैसले में केंद्र सरकार के रवैये की कड़ी आलोचना करते हुए कहा कि जब सरकार खुद ही संविधान की सीमाएं लांघती है, तो यह संवैधानिक अपराध (constitutional violation) की श्रेणी में आता है। न्यायपालिका का यह भी कहना था कि कार्यपालिका की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करे न कि उन्हें कुचले।
कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा, “जो नागरिकों के अधिकारों का रक्षक होता है, उसे भक्षक की भूमिका नहीं निभानी चाहिए।”
संविधान की मर्यादा सर्वोपरि: कोर्ट
कोर्ट ने फैसले में यह भी रेखांकित किया कि लोकतंत्र में सरकार की सबसे बड़ी जिम्मेदारी नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान की मर्यादा का पालन हर स्थिति में आवश्यक है, और कोई भी संस्था इससे ऊपर नहीं हो सकती।
यह फैसला सिर्फ एक परिवार की जीत नहीं
यह निर्णय सिर्फ एक कानूनी लड़ाई की समाप्ति नहीं है, बल्कि उन असंख्य नागरिकों के लिए आशा की किरण है जो वर्षों से राज्य के अन्यायपूर्ण निर्णयों के खिलाफ न्याय की तलाश में हैं। यह दिखाता है कि भले ही न्याय में देर हो जाए, लेकिन जब तक संविधान जिंदा है, उम्मीद बाकी रहती है।
दिल्ली हाई कोर्ट का यह फैसला आने वाले समय में ऐसे मामलों के लिए एक मिसाल बनेगा, जहां सरकार की कार्रवाइयों के खिलाफ नागरिक न्यायालय की शरण लेते हैं।